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Showing posts from April, 2022

आस्था

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  आस्था   जब से पत्नी ने उस अतिथि को   घर पर लाया था   वह मेरी नाराज़गी का कारण बन गया था ।   मेरा मानना है कि प्रकृति स्वयं की देखभाल करना जानती है उसमे हमें दखलंदाज़ी नहीं करना चाहिए । घर के सभी लोग उसे वी. आई. पी. मानकर उसकी खिदमत में जुट गए थे ।   हकीकत तो यह थी   कि मुझे भी उसकी सेवा में जुट जाना चाहिए था।     शाम को घर लौटा तो देखा कि उसका एक कार्डबोर्ड का घर बन गया था ।   उसके अंदर नर्म मुलायम रुमाल की गद्दी बिछा दी गयी थी ।   छोटे बेटे ने अपना ठिया वहीं आस पास बना लिया था ।   उसकी कौतुहल भरी नज़र उस नन्हे प्राणी पर टिकी रहने लगी थी ।   वैसे भी उसका जीव प्रेम जग जाहिर   था और कई बार उफन कर बाहर आ जाता था।   मैं नज़र चुराकर देखता था कि किस तरह पत्नी और बेटा मिलकर ड्रॉपर के माध्यम से उस जीव को पानी और दूध पिलाने का उपक्रम करते रहे थे।   एक दो बार मैं अपनी ' दुष्टता ' पर उतर ही आया था और गुस्से में कह डाला था "छोड़ आओ इसे जहाँ पर मिला था , वह अपनी जिंदगी खुद जी लेगा !" लेकिन मेरी इस फटकार का किसी पर कोई परिणाम नहीं हुआ।   माँ बेटे ने मेरी बात को हमेशा की तर

बेजुबान

  बेजुबान सुबह की कुनकुनी धूप खिल गई थी । मैं भी 19 वें माले पर चाय की प्याली लेकर अपने नियत स्थान पर गैलरी के किनारे अखबार पढ़ते हुए बैठा था । अख़बार कोरोना वायरस और उससे जुड़ी खबरों से पटा पड़ा था । कभी-कभी ये अख़बार   भी नीरस   और डरावने लगते हैं । शब्दों और आंकड़ों के मायाजाल से दिल बैठने लगता है । ख़ैर   मेरी नजर तो गैलरी पर टिकी हुई थी । एक कबूतर   का जोड़ा रेलिंग पर बैठा वार्तालाप कर रहा था । पिछले कुछ दिनों से मैं उनकी आवाज समझने लगा था । एक दोस्त ने बताया था कि जिस कबूतर की गर्दन मोटी होती है वह नर कबूतर होता है । उसकी चोंच   भी छोटी होती है । पतली गर्दन मादा कबूतर की होती है । तो ठीक   है ,   आगे की कहानी में नर कबूतर को मैं कबूतर और मादा को कबूरतरनी ही कहूंगा।   आज कबूतर बड़े ही सीरियस मूड में था । कबूतरनी   ने अपनी आंखें गोल-गोल घुमाते हुए पूछा : "नाराज लग रहे हो ?" कबूतर : "नाराज न हूँ तो क्या ? कल उस बी ब्लॉक   की छठी मंजिल पर रहने वाली डॉक्टर से पड़ोसियों ने क्या बदतमीजी की और कैसी - कैसी भद्दी गालियां दी थी ।"   कबूतरनी : "उसने ऐसा क्य

वे दो भाई

  वे दो भाई   वे दो भाई अजीब ही थे । अभी पिछले दिनों से कॉलेज में दिखने लगे थे । उनकी एक कान की बाली , उनके कपड़े और बातचीत से वे ठेठ देहाती लगते थे । उनका अचानक आना और दोस्तों से पहचान बढ़ाना मेरे लिए थोड़ा जलन का विषय हो रहा था ।   मेरी शहरी मानसिकता ऐसे किसी भी शख्स को को कैसे स्वीकारती   जो हमारे स्टैंडर्ड का नहीं हो ? अंग्रेजी माध्यम का होने के कारण थोड़ी बहुत हेठी तो आ ही गई थी । ऐसे में गाँव के यह दोनों भाई मुझे अप्रिय लगने लगे थे ।   बाद में पता चला कि वे हाल ही में उत्तर प्रदेश से आए हैं और देर से प्रवेश मिलने के कारण अब बचे खुचे सिलेबस को पूरा करने में लगे हैं। वैसे भी मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पढ़ाई में काफी अंतर है। उत्तर प्रदेश की पढ़ाई का स्तर बेहतर ही है और वहां स्थापित उच्चस्तरीय विश्वविद्यालय है जो मध्यप्रदेश के पास कभी नहीं रहे ।   दोनों भाई शहर के दूसरे कोने से कॉलेज में आते थे और समय से बहुत पहले पहुंच जाते थे । कॉलेज न खुलने की स्थिति में वे समीप के पार्क में ही अपनी कॉपी किताब लेकर बैठ जाते और पढ़ाई करने लगते । ठंड के दिनों में पार्क की प

मोबाइल नेबरहुड

  मोबाइल नेबरहुड [ लॉक डाउन में लिखी एक और कहानी ]   आज फिर हमारी बस उस बस स्टॉप पर थी और मैंने खिड़की से झांक कर देखा तो रोज की तरह रहीम चाचा अपनी दुकान की सजावट में मशगूल थे । एक-एक कर वे पोटलियों को खोलते और उसमें रखी सामग्री को सामने रखते जाते ।   आज भी मैंने रोज की तरह ₹ 5 की सिकी मूंगफली का इशारे से ऑर्डर दे दिया था । रहीम चाचा ने तराजू में मूंगफली को तोला और एक पेपर के कोन में डालकर हौले – हौले चलते हुए मेरी खिड़की के पास आकर मुझे वह कोन दे दिया । मैंने पांच का सिक्का पहले ही तैयार रखा था तुरंत उनके सुपुर्द कर दिया । चाचा अपनी सफेद दाढ़ी में मुस्कुरा दिए थे । उनकी शायद आज की बोहनी हो गई थी ।   सिकी हुई मूंगफली को यहां पर “देसी काजू” कहते हैं । यदि आपको समय काटना हो तो इसका जैसा कोई उद्यम नहीं हो सकता । एक - एक   मूंगफली को छीलना, उसमें से दाने निकालना और एक एक दाने का भरपूर आनंद देना इससे बड़ा कोई इससे बड़ा सुख कोई हो सकता है क्या ?   रहीम चाचा से मेरी पहचान रोज इसी तरह होती थी । चाचा की कोई पक्की दुकान नहीं थी और ना ही उनके पास कोई ठेला था । वे साइकिल पर अपना