वे दो भाई
वे दो भाई
वे
दो भाई अजीब ही थे । अभी पिछले दिनों से कॉलेज में दिखने लगे थे । उनकी एक कान की
बाली, उनके
कपड़े और बातचीत से वे ठेठ देहाती लगते थे । उनका अचानक आना और दोस्तों से पहचान
बढ़ाना मेरे लिए थोड़ा जलन का विषय हो रहा था ।
मेरी
शहरी मानसिकता ऐसे किसी भी शख्स को को कैसे स्वीकारती जो हमारे स्टैंडर्ड का नहीं हो ? अंग्रेजी माध्यम का होने के
कारण थोड़ी बहुत हेठी तो आ ही गई थी । ऐसे में गाँव
के यह दोनों भाई मुझे अप्रिय लगने लगे थे ।
बाद
में पता चला कि वे हाल ही में उत्तर प्रदेश से आए हैं और देर से प्रवेश
मिलने के कारण अब बचे खुचे सिलेबस को पूरा करने में लगे हैं। वैसे भी मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पढ़ाई में काफी अंतर
है। उत्तर प्रदेश की पढ़ाई का स्तर बेहतर ही है और वहां स्थापित उच्चस्तरीय विश्वविद्यालय
है जो मध्यप्रदेश के पास कभी नहीं रहे ।
दोनों
भाई शहर के दूसरे कोने से कॉलेज में आते थे और समय से बहुत पहले पहुंच जाते थे ।
कॉलेज न खुलने की स्थिति में वे समीप के पार्क में ही अपनी कॉपी किताब लेकर बैठ
जाते और पढ़ाई करने लगते । ठंड के दिनों में पार्क की पढ़ाई तो अच्छी हो जाती लेकिन बारिश होने की स्थिति में उन्हें किसी अन्य सुरक्षित स्थान की शरण लेनी पड़ती ।
इस
मायने में हम भाग्यशाली थे । हालांकि हमको भी काफी दूर से आना पड़ता लेकिन फिर भी
हम भटसुअर (भोपाली भाषी में आठ सीटर
वाहन) में बैठकर किसी तरह हिचकोले खाते हुए समय पर
कॉलेज पहुँच ही जाते थे और उन दोनों भाइयों को पार्क में पढ़ता हुआ देखते थे ।
हमारा
कॉलेज भी राजनीति का अखाड़ा था । बाहरी लोगों का भारी हस्तक्षेप और गुंडागिर्दी से मेरा मन कॉलेज और उसकी उबाऊ पढ़ाई से पूरी
तरह उचट चुका था । कई बार लगता कि सब छोड़ कर भाग जाऊं लेकिन मां पिताजी की तस्वीर
सामने आते ही लगता है कि ऐसा रास्ता अपनाना सही नहीं होगा ।
कॉलेज
की नकारात्मक गतिविधियों से वे दोनों भाई कभी विचलित नहीं दिखे । उनका ध्येय शायद
तय था। अभावों में मनुष्य और भी मजबूत हो जाता है । मेरे और उन दोनों भाइयों के बीच की बर्फ अब
पिघलने लगी थी । मैं उन्हें समझने की कोशिश कर रहा था । उनके पढ़ाई के प्रति
समर्पण को मैं भी आत्मसात करना चाहता था । लेकिन मन तो मन मन ही ठहरा, वह किसी के वश में होता है
क्या?
देखते
देखते परीक्षाओं के दिन आ गए । फाइनल परीक्षाओं की तैयारी दोनों भाई कमर कसकर कर
रहे थे । लेकिन उनके आत्मविश्वास को मैं क्या समझता? सोचता अभी नए-नए आए हैं देखता हूं क्या कर पाते हैं? मुझे अपने “लास्ट मिनट प्रिपरेशन” वाले फार्मूले पर पक्का
भरोसा था ।
जैसे
तैसे परीक्षाएं खत्म हो गई । अब परिणाम का इंतजार था । अपने तो पेपर अच्छे जाते थे
लेकिन रिजल्ट ही खराब आता था । इस साल भी शायद ऐसा ही कुछ होना था । लेकिन इंतजार
था कि दोनों भाइयों की परीक्षा का परिणाम
कैसा
रहेगा?
इंतजार
खत्म हुआ और आखिर रिजल्ट आ ही गया । अपना हश्र तो न बताने लायक था, विश्वविद्यालय ने एक विषय
में पटकनी दे दी थी । अब उस विषय की फिर से तैयारी करनी पड़ेगी ताकि अगली सीढ़ी चढ़
सकूं ।
दोस्तों
ने बताया कि दोनों भाई बहुत ही अच्छे से पास हो गए । एक भाई को तो गणित में
डिस्टिंक्शन मिला था । लगने लगा कि उन भाइयों के सानिध्य में रहता, तो कुछ भला हो जाता ।
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जैसे
तैसे कॉलेज की पढ़ाई पूरी की लेकिन इस दरमियान मैं दोनों भाइयों से नहीं मिल पाया । शायद आगे की पढ़ाई के लिए किसी दूसरे कॉलेज में चले गए थे ।
कॉलेज
छोड़े मुझे 15 - 16 साल बीत गए थे । पुराने दोस्तों से कभी - कभार मुलाकात हो जाती थी । मुझे अपने बैंक के काम के
सिलसिले में आसपास के शहरों में जाना पड़ता था । इस सफर के भी अपने अलग मजे हैं, आप न तो घर के रहते हैं न
तो घाट के ।
ऐसी
ही एक यात्रा के दौरान मेरे सहयोगी ने बताया कि कोई प्रोफेसर सिंह आपसे मिलना
चाहते हैं ! मैं थोड़ा अचंभित था कि कोई
व्यक्ति दूसरे शहर में मुझसे क्यों मिलना चाहेगा? शायद कोई धंधे की बात तो
नहीं है?
उस
दिन दोपहर के समय प्रोफेसर सिंह अचानक मुझसे मिलने पहुंच गए । हाथ में कॉलेज की टेक्स्ट
बुक और साफ-सुथरे पेंट शर्ट में
उस दुबले-पतले सज्जन को मैं पहली नजर में पहचान ही नहीं पाया । समय की परतों ने चेहरे की
पहचान कुछ भोथरी कर दी थी ।
लेकिन
अचानक याद आया कि उन दोनों भाइयों में से यही एक प्रोफेसर सिंह थे । छाती एकदम धड़- धड़ाने लगी । उत्तेजना में मुंह से शब्द निकलने बंद हो गए । पूछने
पर पता चला कि मेरे बारे में उन्हें एक एक नज़दीकी मित्र ने बताया था । मेरा नाम
सुनकर वह मुझसे काफी समय से मिलना चाह रहे थे ।
बाद
में पता चला कि मेरे मित्र ने कॉलेज की पढ़ाई के बाद ट्यूशन पढ़ाकर अपना आगे का
अध्ययन जारी रखा था, इस
दरमियान पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा भी पास की और
शासकीय कॉलेज में लेक्चरर बन गया । और अब गणित में डॉक्टरेट चल रही थी।
दूसरा
भाई एक शासकीय स्कूल में प्रधानाध्यापक हो गया था । प्रोफेसर सिंह को मैं कैसे बताता
कि मैं उनके बारे में क्या सोचता था? मन ही मन अपनी घटिया सोच पर
पछतावा करता रहा ।
एक
लंबी मुलाकात के बाद जब कार्यालय के बाहर प्रोफेसर सिंह को विदा करने लगा तो मन
में आया कि मैं उन्हें सब बता दूँ और अपने पाप बोध से मुक्त हो जाऊँ । लेकिन मन के संकोच ने इस ख्याल को
दरकिनार कर दिया ।
प्रोफेसर
सिंह की बस आ गई थी और वे मुझे हाथ हिलाकर
बाय-बाय करते रहे । मैं जब तक उनका हाथ धुंधला नहीं हो गया ठगा सा देखता रहा और
सोचता रहा अपने बच्चों को बताऊंगा कि “मनुष्य की असली पहचान उसके
कपड़े या रहन सहन से नहीं है । मनुष्य
की असली पहचान होती है उसके चरित्र और ध्येय के प्रति विश्वास से !”
लेकिन
आज के बच्चे क्या मेरी बात समझेंगे?
-
आशीष कोलारकर
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