आस्था

 


आस्था

 

जब से पत्नी ने उस अतिथि को  घर पर लाया था  वह मेरी नाराज़गी का कारण बन गया था ।  मेरा मानना है कि प्रकृति स्वयं की देखभाल करना जानती है उसमे हमें दखलंदाज़ी नहीं करना चाहिए । घर के सभी लोग उसे वी. आई. पी. मानकर उसकी खिदमत में जुट गए थे ।  हकीकत तो यह थी  कि मुझे भी उसकी सेवा में जुट जाना चाहिए था। 

 

शाम को घर लौटा तो देखा कि उसका एक कार्डबोर्ड का घर बन गया था ।  उसके अंदर नर्म मुलायम रुमाल की गद्दी बिछा दी गयी थी ।  छोटे बेटे ने अपना ठिया वहीं आस पास बना लिया था ।  उसकी कौतुहल भरी नज़र उस नन्हे प्राणी पर टिकी रहने लगी थी ।  वैसे भी उसका जीव प्रेम जग जाहिर  था और कई बार उफन कर बाहर आ जाता था।

 

मैं नज़र चुराकर देखता था कि किस तरह पत्नी और बेटा मिलकर ड्रॉपर के माध्यम से उस जीव को पानी और दूध पिलाने का उपक्रम करते रहे थे।  एक दो बार मैं अपनी 'दुष्टता' पर उतर ही आया था और गुस्से में कह डाला था "छोड़ आओ इसे जहाँ पर मिला था, वह अपनी जिंदगी खुद जी लेगा !" लेकिन मेरी इस फटकार का किसी पर कोई परिणाम नहीं हुआ।  माँ बेटे ने मेरी बात को हमेशा की तरह कोई तवज़्ज़ो नहीं दी थी और ऐसा दिखाया था मानो उन्होंने कुछ सुना ही न  हो ! 

 

अब तक तटस्थ रहे बड़े बेटे  ने भी इस सेवा अभियान में अपना सहयोग देना शुरू कर दिया था।  उसने अपने ज्ञानदाता "गूगल बाबा" की मदद से   इस जीव के बारे में गहन रिसर्च कर डाला था    वह क्या खाता है ? कब सोता है ? उसे किस तरह के वातावरण की आवश्यकता  होती है ? उसकी उम्र कितनी होती है ?  इत्यादि इत्यादि के बारे "गूगल"ज्ञान से वह लैस था।  अब वह भी माँ - बेटे के अभियान में सलाहकार बन गया था । 

 

मेरा भी निर्लिप्त मन अब यही कामना करने लगा था कि किसी तरह यह छोटा सा जीव स्वस्थ हो जाए तो उसे उसके माँ पिता के पास छोड़ आएं।  मन में आशंका भी थी की क्या  इसे  प्रकृति  स्वीकार कर  पायेगी ? लेकिन उम्मीद का इंद्रधनुष सुखद संकेत दे रहा था।

पत्नी और बच्चों की व्यस्तता अब बढ़ रही थी।  स्कूल, पढाई और खेल कूद के साथ बच्चों को एक नई जिम्मेदारी मिल गयी थी।  आठ दस दिन पलक झपकते ही बीत गए।  उस मूक प्राणी ने भी प्यार का आदान प्रदान करना शुरू कर दिया था।  पत्नी और बच्चा पार्टी का सेवा अभियान रंग लाने लगा था। 

अब एक दो दिन और बीते ही थे कि नन्हे जीव ने खाना पीना छोड़ दिया था।   पत्नी और बच्चों के प्रयासों के बावजूद उसने अन्न और पानी को छूना ही बंद कर दिया था और एकदम निढाल सा हो गया था ।  बड़े बेटे ने अपने अध्ययन से बताया कि शायद वह सदमे के कारण अवसाद में चला गया होगा।  छोटा बेटा दुःखी हो रहा था।  उसकी आंखों में आंसू आ गए थे।  उसकी बैठक अधिकतर समय अब कार्डबोर्ड के घर के पास ही रहने लगी थी । पत्नी के साथ दोनों जीव प्रेमी अपने पूरे  प्रयासों के साथ एक जिंदगी को बचाने का जतन कर रहे थे।  मेरे मन में भी आशंकाओं के बादल घुमड़ने लगे थे। जिंदगी के एक - एक पल का अहसास सभी को होने लगा था।

उस दिन शाम को घर लौटा तो घर का माहौल बदला बदला सा लगा था ।  आशा के विपरीत  छोटा बेटा किताबों में सिर खपाये  बैठा था।  बड़े बेटे ने कंप्यूटर गेम में अपने आप को व्यस्त कर लिया था।  कार्डबोर्ड का घर खाली लग रहा था।  मुझे अनिष्ट समझने में देर नहीं लगी थी   मौन की भाषा ने हकीकत बयां कर दी थी।

मन हुआ कि पत्नी को सांत्वना दे दूँ जो इस नन्ही बिल्ली को अपने स्कूल के कैंपस में घायल देखकर उसकी देखभाल करने घर ले आयी थी।  इतने दिन दिल से सेवा करने के बाद किसी को खो देने पर उसे जरूर दुःख पहुंचा होगा।  लेकिन हिम्मत नहीं हुई। 

लगभग दो सप्ताह के छोटे से सानिध्य में वह नन्हा सा जीव जीवन के प्रति गहरी आस्था जगा गया था।

नोट : सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं।

आशीष कोलारकर

21.01.2022

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