मोबाइल नेबरहुड

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[लॉक डाउन में लिखी एक और कहानी]

 

आज फिर हमारी बस उस बस स्टॉप पर थी और मैंने खिड़की से झांक कर देखा तो रोज की तरह रहीम चाचा अपनी दुकान की सजावट में मशगूल थे । एक-एक कर वे पोटलियों को खोलते और उसमें रखी सामग्री को सामने रखते जाते ।

 

आज भी मैंने रोज की तरह ₹ 5 की सिकी मूंगफली का इशारे से ऑर्डर दे दिया था । रहीम चाचा ने तराजू में मूंगफली को तोला और एक पेपर के कोन में डालकर हौले – हौले चलते हुए मेरी खिड़की के पास आकर मुझे वह कोन दे दिया । मैंने पांच का सिक्का पहले ही तैयार रखा था तुरंत उनके सुपुर्द कर दिया । चाचा अपनी सफेद दाढ़ी में मुस्कुरा दिए थे । उनकी शायद आज की बोहनी हो गई थी ।

 

सिकी हुई मूंगफली को यहां पर “देसी काजू” कहते हैं । यदि आपको समय काटना हो तो इसका जैसा कोई उद्यम नहीं हो सकता । एक - एक  मूंगफली को छीलना, उसमें से दाने निकालना और एक एक दाने का भरपूर आनंद देना इससे बड़ा कोई इससे बड़ा सुख कोई हो सकता है क्या ?

 

रहीम चाचा से मेरी पहचान रोज इसी तरह होती थी । चाचा की कोई पक्की दुकान नहीं थी और ना ही उनके पास कोई ठेला था । वे साइकिल पर अपना सामान लाते और बस स्टॉप के बगल में चादर बिछा कर अपनी दुकान खोल लेते । 4 फीट बाई 4 फीट की चादर पर उनकी पूरी दुकान सज जाती ।

 

उनके पास ढेर सारी चीजें हुआ करती थी जैसे सिकी हुई मूंगफली; नमकीन मूंगफली के दाने, भुने हुए चने, नमकीन, दालमोठ, सूखे बेर, गुटके की लड़ियां और बहुत कुछ । बस के कंडक्टर, हेल्पर उनके बड़े ग्राहक थे । कई बार देखता कि वे चाचा से बिना पूछे चने या मूंगफली के दानों को निकालकर खाने लगते, लेकिन इस पर मैंने चाचा को कभी नाराज होते नहीं देखा था ।

 

न जाने चाचा की इस दुकान से कितनी कमाई होती होगी? लेकिन उनका नियम पक्का था । सुबह वे जल्दी आ जाते और अपना मोर्चा संभाल लेते । उनकी इस मुस्तैदी को देखकर, कभी-कभी जब मुझे काम पर जाने में आलस आता तो चाचा की तस्वीर सामने आ जाती और मैं अपने आलस पर काबू पा लेता । मन की उधेड़बुन शांत करने के लिए किसी भी आलम्बन की मदद लेने में क्या बुराई है?

 

चाचा के परिवार में कितने लोग थे पता नहीं? लेकिन लोगों का कहना था कि उन्होंने चाची को देखा था । चाची बीमार रहती थी इसलिए चाचा को रोज काम पर आना होता था ताकि कुछ कमाई हो सके ।

 

चाचा का मैला कुचैला कुर्ता, सिर पर टोपी, थोड़ी लापरवाही से बंधा उनका पजामा, सफेद झक लंबी दाढ़ी, सुनहरे बाल और पोपले मुंह के पीछे झाँकती उनकी मुस्कान, सभी को बांधे रखती थी । तेज चलते ट्रैफिक, गाड़ियों की कर्कश आवाज, सवारियों का उतरना चढ़ना इन सभी के बीच चाचा की दुकान अनवरत चलती रहती थी ।

 

बस के ड्राइवर और डॉक्टर, चाचा को अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे । बस की खिड़की से मैं चाचा और उनकी दिल्लगी देख सोचता मोबाइल नेबरहुड शायद इसी को कहते हैं । इस मायने में चाचा का परिवार तो बहुत ही बड़ा था ।

 

बीच के कुछ दिनों में चाचा की दुकान बंद रही और मैं अपने  “देसी काज़ुओं”  का मजा नहीं ले पाया । चाचा कुछ समय से नहीं आ रहे थे क्योंकि किसी ने बताया कि चाची बीमार थी और वे उसकी सेवा में थे । यूं ही मन ही मन चाची की सलामती के लिए दुआ के कुछ शब्द निकल ही आए ।

 

कई बार सोचता कि इस मूंगफली के कोन में भी जिंदगी का फलसफा छुपा हुआ है । जब तक आपको मूंगफली के दाने अच्छे मिलते जाते हैं आप उसका पूरा आनंद लेते रहते हो । लेकिन जैसे ही कोई दाना कसैला या कड़वा निकलता है आपके मुंह का स्वाद गड़बड़ हो जाता है । जीवन शायद ऐसा ही तो है : जब तक परिस्थिति आपके मन मुताबिक होती है आप अपने ही आनंद में डूबे रहते हो, लेकिन जब कोई स्थिति मन के खिलाफ हो गई तो आपका पूरा मानस अपनी किस्मत को कोसने में लग जाता है ।

 

चाचा से मेरी मेरा यही अनकहा रिश्ता प्रगाढ़ होता गया । जब भी मुझे उस दिशा में जाना होता मैं वही बस पकड़ता जो चाचा के दुकान के सामने निश्चित तौर पर रूकती हो । चाचा भी मुझे समझने लगे थे । मुझे देखते ही वह मूंगफली की कोन वाली पुड़िया तैयार रखते, मेरा इशारा पाते ही उसे मेरे हवाले कर देते थे । मेरे हाथ में भी पांच का सिक्का हमेशा तैयार रहता । सिक्का पाते ही चाचा की सफेद दाढ़ी से खिली हुई मुस्कान, दिल को बहुत सुकून देती थी ।

 

आज लगभग 2 साल बाद उसी दिशा में जा रहा था जिस ओर चाचा की दुकान थी । हमेशा की तरह मैं उसी बस में बैठा था जो चाचा की दुकान के सामने ठहरती थी । नियत जगह पर आज चाचा नहीं थे और न हीं उनकी दुकान थी । खिड़की से आसपास झाँक कर देखा कि चाचा का ठिया कहीं दूसरी जगह तो नहीं चला गया? लेकिन निराशा ही हाथ लगी ।

 

इशारों से ही आसपास के लोगों से पूछा कि चाचा कहां है? किसी ने पास आकर बताया कि साल भर पहले चाची चल बसीं और चाचा अकेले रह गए । चाची के चले जाने के बाद चाचा का यहां आना कम होता गया । बाद में वे बीमार रहने लगे ,  और कुछ समय पहले ही उनका इंतकाल हो गया ।

 

लेकिन जाने के पहले चाचा अपनी जमा पूंजी का कुछ हिस्सा दे गए ताकि उनकी दुकान वाली जगह के आसपास लोगों के लिए प्याऊ बन सके ।

 

गौर किया तो नया सा प्याऊ तैयार दिख रहा था । कुछ लोग उसमें से नल खोल कर पानी पी रहे थे । ऐसा लगा मानो चाचा आसपास ही हैं और लोगों को प्यास बुझाते देख अपनी सफ़ेद दाढ़ी के पीछे मुस्कुरा रहे हैं ।

 

किसे पता ?

 

 

-    आशीष कोलारकर

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