बेजुबान
बेजुबान
सुबह की कुनकुनी धूप खिल गई थी । मैं भी 19वें माले पर चाय की प्याली लेकर अपने नियत स्थान पर गैलरी के किनारे अखबार पढ़ते हुए बैठा था । अख़बार कोरोना वायरस और उससे जुड़ी खबरों से पटा पड़ा था । कभी-कभी ये अख़बार भी नीरस और डरावने लगते हैं । शब्दों और आंकड़ों के मायाजाल से दिल बैठने लगता है ।
ख़ैर मेरी नजर तो गैलरी पर टिकी हुई थी । एक कबूतर का जोड़ा रेलिंग पर बैठा वार्तालाप कर रहा था । पिछले कुछ दिनों से मैं उनकी आवाज समझने लगा था । एक दोस्त ने बताया था कि जिस कबूतर की गर्दन मोटी होती है वह नर कबूतर होता है । उसकी चोंच भी छोटी होती है । पतली गर्दन मादा कबूतर की होती है । तो ठीक है, आगे की कहानी में नर कबूतर को मैं कबूतर और मादा को कबूरतरनी ही कहूंगा।
आज कबूतर बड़े ही सीरियस मूड में था ।
कबूतरनी ने अपनी आंखें गोल-गोल घुमाते हुए पूछा : "नाराज लग रहे हो ?"
कबूतर : "नाराज न हूँ तो क्या ? कल उस बी ब्लॉक की छठी मंजिल पर रहने वाली डॉक्टर से पड़ोसियों ने क्या बदतमीजी की और कैसी - कैसी भद्दी गालियां दी थी ।"
कबूतरनी : "उसने ऐसा क्या किया जो पड़ोसी इस तरह का बर्ताव कर रहे थे?"
कबूतर (तैश में) : "तुम्हें तो दुनिया जहान की कोई खबर रहती ही नहीं है । डॉक्टर आजकल कोरोना पीड़ितों के अस्पताल में ड्यूटी बजा रही है। रात में जब थक हार कर घर आती है तो पड़ोसियों को आपत्ति होती है कि कहीं वह कोरोना की बीमारी तो यहाँ नहीं ले आयी । कल तो हद ही कर दी । डॉक्टर को बाहर ही रहने की धमकी दे डाली । पुलिस आई और मामला कुछ ठंडा पड़ा ।"
कबूतरनी : "यह तो हद ही कर दी । ऐसा कभी होता है क्या ?"
कबूतर आज कुछ ज्यादा ही आक्रोश में था । थोड़ी देर गर्दन मटका कर इधर-उधर देखता रहा और फिर पंख फैलाकर उड़ गया । कबूतरनी का मन फिर रेलिंग पर बैठने में नहीं लगा । वह भी धीमे से खिसक गई ।
आज पता नहीं क्यों फिल्मी गीत " कबूतर जा.... जा..... !" की बार-बार याद आ रही थी ।
दिनभर फिर कबूतर का जोड़ा मेरी गैलरी में दिखाई नहीं दिया ।
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: 2 :
अमूमन नया दिन एक नई आशा के साथ आता है । लॉकडाउन में सभी दिन एक जैसे क्यों लग रहे हैं यह समझ नहीं आता । इंद्रधनुष के सात रंग होते हैं लेकिन जब भी रंग आपस में घुल मिल जाते हैं, सफेद रंग ही दिखाई देता है ।
कबूतर जोड़ी आज रेलिंग पर बैठी थी । मेरे कान सतर्क हो गए थे और मैं कनखियों से उस जोड़ी को देखने लगा था । कबूतरनी आज बड़ी चहक रही थी।
कबूतर (अचानक ही) : "आज बड़ी खुश लग रही हो ! क्या बात है?"
कबूतरनी (चहकते हुए) : "खुश क्यों न हूँ ? बात ही कुछ ऐसी है। आर ब्लॉक की 18वीं मंजिल पर दोनों कामकाजी पति पत्नी अपने नन्हे बच्चे के साथ रहते हैं न ! उनके बारे में सोच कर बड़ी खुश हूं । पिछले 15 दिनों से मम्मी पापा को साथ और अपने बीच देखकर बच्चा कह रहा था कि पीएम अंकल से रिक्वेस्ट करूँगा की लॉकडाउन और भी बढ़वा दें । पिछले कुछ दिनों से बच्चे के साथ पापा क्रिकेट खेल रहे हैं और मम्मी लूडो खेलती है । बच्चे को और क्या चाहिए? तुम भी जरा बच्चों पर ध्यान दो, यूं ही आवारगी करते फिरते हो ! "
कबूतर के मर्दानापन को जरूर ठेस लगी होगी । उसने गर्दन मोड़ते हुए कबूतरनी को देखा, आंखें गोल-गोल की लेकिन कुछ नहीं बोला । समझदार मर्द पत्नी से बहस नहीं करते हैं केवल सर झुका कर सुन लेते हैं ।
दोनों के बीच कुछ क्षण अबोला ही रहा । फिर दोनों भरभराते हुए उड़ लिए ।
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: 3 :
कभी-कभी शाम को बिल्डिंग की छत पर जाकर कंक्रीट के जंगल को देखकर लगता है कि मानवीय हलचल के बिना संसार तो बड़ा ही भुतहा लगता है मानों समूची आत्मा ही निचोड़ ली हो।
मुझे ऑस्कर वाइल्ड की "द सेलफिश जायंट" वाली कहानी याद आ गई जो मैंने बचपन में पढ़ी थी । कहानी बड़ी मार्मिक थी जिसमें एक राक्षस बच्चों के पार्क पर कब्जा कर लेता है और बच्चों को डरा धमकाकर पार्क में नहीं आने देता ।
बच्चों के पार्क में न आने से उस पार्क से पंछी, हरियाली और वसंत किनारा कर लेते हैं और पार्क वीरान हो जाता है । राक्षस को समझ में ही नहीं आता उसके पार्क को क्या हो गया है?
एक दिन कुछ बच्चे जबरदस्ती पार्क में घुस आते हैं और उनकी मासूम शरारतों को देखकर पार्क के पेड़ पौधों में फिर चैतन्य आ जाता है ।
कहानी में आगे भी बहुत कुछ है ।
ऐसा लगता है कि कोरोना राक्षस ने हमारे सुंदर पार्क पर कब्ज़ा कर लिया है । इस पार्क को भी ऐसे ही नन्हे बच्चों और उनकी किलकारियों की आवश्यकता है ।
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: 4 :
मुझे सुबह की चाय पिए काफी समय हो गया था । अख़बार को भी मैंने दो-तीन बार उलट-पुलट लिया था । कबूतर का जोड़ा आज कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था, मानों वे दोनों भी लॉकडाउन में चले गए हो ।
अचानक दोनों आकाश से प्रकट हुए और बालकनी की रेलिंग पर बैठ गए । मेरे कान खड़े हो गए । कबूतरनी आज काफी आक्रामक लग रही थी । कबूतर कुछ हंसी ठिठोली के मूड में था ।
कबूतर : "क्या हुआ?"
कबूतरनी : "मेरा तो खून खौल रहा है। कल तो एफ ब्लॉक के बीसवें माले पर एक व्यक्ति अपनी पत्नी को पिटे जा रहा था । पत्नी शायद सब्जी में नमक डालना भूल गई थी । ये मर्द भी पत्नी को नौकरानी ही समझते हैं। मेरा बस चलता तो पति को ठीक कर देती । अपनी मर्दानगी दिखानी है तो कहीं और दिखाओ ना!"
कबूतरनी बोलते बोलते हाँफने लगी । कबूतर निरुत्तर था । उसने अपने पंख फैलाते हुए कबूतरनी को सांत्वना दी । माहौल बोझिल हो गया । कुछ ही पलों में दोनों पानी की तलाश में फुर्र हो गए ।
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: 5 :
आज गैलरी की रेलिंग समय से पहले ही आबाद हो गई थी । रेलिंग पर आज कबूतर गुमसुम बैठा था । रोज़ की तरह उसकी चंचल गतिविधियों पर मानो विराम लग गया था । इतने में पास से ही दूसरा कबूतर रेलिंग पर आ बैठा ।
कबूतर नंबर 2 : "आज बड़े गुमसुम लग रहे हो?"
कबूतर नंबर 1 फिर भी कुछ नहीं बोला ।
कबूतर नंबर 2 : "कोई उलझन है क्या?"
कबूतर नंबर 1 : "हां ! कल दिन में सोसाइटी की मुंडेर पर बैठा था तो देखता हूं सैकड़ों मजदूर अपना सामान और नन्हे मुन्ने बच्चों के साथ अपने घर की ओर चल दिए हैं । एक छोटी बच्ची अपने नन्हे भाई को गोद में लिए थे । कहां जाएंगे यह लोग? कब तक पहुंचेंगे? छोटे बच्चे इस परेशानी को कैसे झेलेंगे ? देखकर मन दुःखी हो गया । क्या गरीबों के लिए हमेशा ही दुनिया ऐसी थी ?"
कबूतर नंबर 2 के पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था । वह निरुत्तर हो गया ।
दोनों कबूतर यूं ही काफी देर निस्तब्ध बैठे रहे ।
मैंने भी अपनी आंखें फेर ली और एक किताब में अपनी नजरें खड़ा लीं ।
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: 7 :
आज कबूतर का जोड़ा मुझे दिखाई नहीं दिया । लगता है मेरी जासूसी से नाराज होकर वह किसी दूसरे घर चला गया हो । हो सकता है मुझे मन की बातें समझने का वहम भी हो गया हो । वे बेजुबान कभी बोलते हैं क्या?
लेकिन मैं अपनी इस खुशफ़हमी को कायम रखना चाहता हूं ।
कल सुबह उस कबूतर के जोड़े
का फिर इंतजार करूंगा ।
- आशीष कोलारकर
[यह कहानी मैंने लॉक डाउन के समय लिखी थी। अखबारों की रिपोर्ट और कुछ आलम्बनों को लेकर उस समय की घटनाओं और मनस्थिति का चित्रण करने का प्रयास किया है। ]
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