जीवन की पाठशाला
जीवन की पाठशाला
डॉ कुमार आज बहुत ही थक
गए थे। पिछले दिनों से वे अपनी टीम के साथ
एक प्रेजेंटेशन बनाने में व्यस्त थे। इस
प्रेजेंटेशन को उन्हें शिक्षा मंत्री के समक्ष प्रस्तुत करना था। विभाग के प्रमुख सचिव ने भी इस प्रस्तुति में
काफी रूचि दिखाई थी और वे कई बार डॉ कुमार
से इसकी प्रगति के बारे में पूंछते रहे थे।
वे क्यों न पूंछते , कुमार शिक्षा
विभाग के आला अफ़सर जो ठहरे।
प्रेजेंटेशन का विषय भी
काफी प्रासंगिक था : "कोरोना काल के
बाद बच्चों की स्कूल में शानदार
वापसी", इस विषय पर जमीनी
हकीकत बतानी थी। जिलों में कार्यरत अधिकारियों
ने अच्छी रिपोर्ट भेजी थी। रिपोर्ट के
मुताबिक एक बड़ी ही आशावादी तस्वीर मंत्री जी के सामने पेश की गयी। प्रमुख सचिव ने मंत्री महोदय के समक्ष बड़ी ही मनभावन प्रस्तुति दे दी । मंत्री जी का
मूड आज अच्छा था और वे काफी प्रसन्न दिख रहे थे।
शाम को मंत्रालय से वापस
कार्यालय आकर डॉ कुमार काफी तनावमुक्त थे।
मन की मन सोच रहे थे चलो एक बड़ा सिर दर्द टल गया। ऑफिस के कामों की तलवार आजकल टंगी ही रहती है
जो चैन से बैठने नहीं देती।
अभी वे घर वापसी की
तैयारी कर ही रहे थे कि पत्नी ने मोबाइल पर घंटी दे दी और हिदायत देते हुए कहा कि
सब्ज़ी ख़त्म हो गयी है आते समय लेते
आना। पत्नी का आदेश तो पत्थर की लकीर होता
है जिसका पालन होना ही है।
गाड़ी में बैठते हुए
उन्होंने सोचा कि मोहल्ले के बाहर ही एक नई दुकान खुली है सब्ज़ी वहीं से लेना ठीक
रहेगा। अभी लॉक डाउन के समय में खुली उस
दुकान पर उनकी नज़र कल ही पड़ी थी।
कार्यालय से घर की दूरी
कुछ चार पांच कि. मी. रही होगी लेकिन ट्रैफिक के कारण आज कुमार साहब को कुछ
ज्यादा ही समय लग गया। मोहल्ला पास आते ही डॉ कुमार को पत्नी ने बताये काम की याद हो आयी। तुरंत ही उन्होंने गाड़ी को एक तरफ लगाया और उस
नयी दुकान की और चल पड़े।
"आइये साहब ! सब्ज़ी एकदम ताज़ा है : भिंडी, बरबटी, गंवार फल्ली, टमाटर और ताज़ी
पालक। क्या लेंगे ? " अपने
इलेक्ट्रॉनिक तौल को ठीक करते हुए बारह तेरह
साल के उस लड़के ने चहकते हुए पूंछा।
सब्ज़ी करीने से सजाई हुई दिख रही थी और लड़के की आँख में चमक थी।
अपनी पसंदीदा सब्ज़ियों को
चुनकर डॉ कुमार ने डलिया में डाला और लड़के को तौलने का इशारा किया। लड़के ने फुर्ती से सब्ज़ियों को तौला और उन्हें
पॉलिथीन में डालते हुए कहा "लीजिये साहब ! आपके हुए अस्सी रुपए । " लड़के
की मुस्तैदी देखकर डॉ कुमार ने अपनी पर्स से नोट निकालते हुए लड़के से पूछा
"क्या तुम अकेले ही दुकान चलाते हो ? पिताजी कहाँ हैं ? "
लड़का बिना झिझक के बोल
पड़ा "पिताजी तो मजदूरी करते हैं , अभी आते ही होंगे। सुबह वे मंडी से सब्ज़ी ले आते हैं। मैं, मेरी बहिन और मेरी मां दिन भर बारी बारी से दुकान पर बैठते
हैं। दोपहर से शाम तक मेरी ही ड्यूटी होती
है। "
बच्चे की बात सुनकर डॉ
कुमार की उत्सुकता और बढ़ गयी और उन्होंने एक साथ दो प्रश्न दाग दिए। "स्कूल जाते हो ? किस क्लास में
पढ़ते हों ?" लड़के की नज़र अगले
ग्राहक पर थी पर उसने जल्द ही जवाब दे डाला।
"लॉक डाउन के पहले तक सरकारी स्कूल में जाता था। पांचवी में था। लेकिन अब मैंने और मेरी बहिन ने
स्कूल जाना छोड़ दिया है। " लड़का बिखरे आलूओं को सफाई से जमाने लगा। उसकी प्रश्नोत्तर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं
थी।
बच्चे की बेरुखी को
नजरअंदाज करते हुए डॉ कुमार ने संवाद के क्रम को आगे बढ़ा ही दिया और बच्चे से पूछ
लिया "स्कूल क्यों छोड़ दिया बेटा ?" बच्चा इस पर कुछ अनमना सा हो गया और झिझकते हुए
बोला "लॉक डाउन में पिताजी को काम नहीं मिला और खाने के लाले पड़ गए। स्कूल की फीस क्या भरते ? इसी दौरान पिताजी
ने सब्ज़ी का ठेला लगाना शुरू कर दिया और मैं भी उनकी मदद करने लगा। मुझे यह काम अब अच्छा लगता है और कुछ कमाई भी
हो जाती है। तो फिर अब स्कूल का हिडेक कौन पालेगा
?"
कुमार को हिडेक का मतलब
समझने में देर नहीं लगी, अंग्रेजी के
हेडेक का यह देशीकरण था। इतना कहकर लड़का अगले खरीददार की खिदमत में जुट गया। जीवन की पाठशाला की वह कई सीढ़ियाँ चढ़ गया
था।
डॉ कुमार को अपने पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन में पेश किये आँकड़े अब बेमानी लगने लगे थे।
© आशीष
कोलारकर
11.11.2021
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